नाद
नाद किसे कहते हैं ?
(१) नाद का छोटा-बड़ा होना-
नियमित और स्थिर आन्दोलन-संख्या वाली मधुर ध्वनि को नाद कहते है। दूसरे शब्दों में संगीतोपयोगी मधुर ध्वनि को नाद कहते हैं। संगीत में इसी ध्वनि का उपयोग होता है। संगीत में प्रयोग की जाने वाली ध्वनि की आन्दोलन नियमित तथा मधुर होती है। जो ध्वनि अनियमित, अस्थिर तथा अमधुर होती है। वह संगीत के काम की नहीं होती, अतः उसे हम नाद नहीं कह सकते हैं।
नाद की विशेषतायें-नाद की तीन विशेषतायें अथवा लक्षण माने जाते हैं-
१- नाद का छोटा अथवा बड़ा होना।
२- नाद की ऊँचाई अथवा निचाई।
३- नाद की जाति अथवा गुण ।
संगीतोपयोगी ध्वनि को हम धीरे से उत्पन्न कर सकते हैं अथवा जोर से। धीरे से उत्पन्न की गई ध्वनि को छोटा नाद और जोर से उत्पन्न की गई ध्वनि को बड़ा नाद कहते हैं। छोटा नाद कम दूरी तक और बड़ा नाद अधिक दूरी तक सुनाई पड़ता है। तानपूरे के तार को जब हम धीरे से छेड़ते हैं तो तार के कम्पन की चौड़ाई कम होती है और नाद छोटा होता है। इसके विपरीत जब हम उसी तार को जोर से छेड़ते हैं तो तार के कम्पन अथवा आन्दोलन की चौड़ाई अधिक होती है और नाद बड़ा होता है। छोटे और बड़े नाद में स्वर एक रहता है, किन्तु दोनों में केवल इतना अन्तर होता है कि छोटा नाद कम दूरी तक और बड़ा नाद अधिक दूरी तक सुनाई पड़ता है। उदाहरण के लिये अगर हम धीरे से रेडियो बजाते हैं तो कम दूरी तक सुनाई पड़ेगा और यदि जोर से बजाते हैं तो अधिक दूरी तक सुनाई पड़ेगा। यही बात प्रत्येक वाद्य के लिये भी है। धीरे से बजाने से कम दूरी तक और जोर से बजाने पर अधिक दूरी तक सुनाई पड़ेगा ।
(२) नाद की ऊँचाई -निचाई-
गाते-बजाते समय हम यह अनुभव करते हैं कि सा से ऊँचा रे, रे से ऊँचा ग, ग से ऊँचा म, म से ऊँचा प रहता है। इसी प्रकार जैसे-जैसे हम ऊपर बढ़ते जाते हैं, स्वर ऊँचा होता जाता है। इसका कारण यह है कि नाद (स्वर) की ऊँचाई -निचाई उसकी आन्दोलन-संख्या पर आधारित है। प्रति सेकेण्ड अधिक आन्दोलन-संख्या होने से नाद ऊँचा होता है। और कम होने से नाद नीचा होता है। प की आन्दोलन-संख्या ग से ज्यादा होगी और ग की सा से ज्यादा होगी, क्योंकि सा से ऊँचा ग और ग से ऊँचा प होता
है।
(३) नाद की जाति व गुण–
वैज्ञानिकों का यह कथन है कि कोई भी नाद अकेला उत्पन्न नहीं होता। उसके साथ-साथ कुछ अन्य नाद भी उत्पन्न होते हैं। इन नादों को सहायक नाद कहते हैं। सहायक नादों को सुनकर अलग-अलग पहचान लेना बहुत कठिन है।सहायक नादों की संख्या तथा उनकी जोरदारी प्रत्येक वाद्य में भिन्न-भिन्न होती है। इसलिये वायोलन का स्वर सितार से, सितार का सारंगी से, सारंगी का तबले से तथा हारमोनियम का स्वर सरोद के स्वरों से भिन्न होता है। इसी को नाद की जाति अथवा गुण कहते हैं। नाद की जाति के कारण अगर हमारी आँखे बन्द हों और भिन्न-भिन्न वाद्य अलग-अलग बजाये जाँय तो हम उस वाद्य को पहचान लेते हैं। तबले की ध्वनि सुनकर हम कह देते हैं कि यह ध्वनि तबले की है, बेला, सितार अथवा ढोलक की नहीं। इसका कारण यह है कि नाद की जाति प्रत्येक वाद्य में भिन्न होती है। दैनिक जीवन में अपने परिचित की आवाज को सुनकर हम समझ जाते हैं कि मुझे कौन बुला रहा है, हमारे मित्र, भाई-बहन अथवा और कोई । इसका कारण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति की आवाज एक दूसरे से भिन्न होती है। इसी प्रकार प्रत्येक वाद्य की ध्वनि, नाद की जाति के कारण. एक दूसरे से भिन्न होती है।
श्रुति-
संगीतोपयोगी अर्थात् नियमित, स्थिर तथा मधुर ध्वनि नाद कहलाती है। एक सप्तक में (सा से नि तक) असंख्य नाद हो सकते हैं, किन्तु संगीत के विद्वानों ने यह अनुमान लगाया कि इनमें से अधिक से अधिक २२ नाद संगीत में प्रयोग किये जा सकते हैं। उन्होंने सोंचा कि नाद की संख्या उतनी ही माननी चाहिये जिन्हें ठीक-ठीक पहचाना जा सके, उनके बीच का अन्तर बताया जा सके और आवश्यकतानुसार प्रयोग किया जा सके। इन्हीं बाईस नादों को संगीत में श्रुति कहते हैं। वह नाद जिसे हम स्पष्ट रूप सुन सकें, समझ सके तथा किन्हीं दो नादों के बीच का अन्तर बता सकें, श्रुति कहलाता हैं। हमारे शास्त्राकारों ने ठीक ही कहा है, श्रुयते इति श्रुतिः अर्थात् श्रुति वह है जिसे हम सुन सकें। सुनने का तात्पर्य केवल सुनना ही नही, बल्कि सुनकर समझ लेना भी है।
शास्त्रकारों ने बाईस श्रुतियों के बीच इतना अन्तर माना है कि २३वीं श्रुति पहली श्रुति से ठीक दुगनी ऊँचाई पर रहे, क्योंकि २३वीं श्रुति से दूसरा सप्तक प्रारम्भ हो जाता है। इस प्रकार नाद तो असंख्य हैं, किन्तु श्रुतियाँ केवल २२ हैं । दूसरे शब्दों में प्रत्येक श्रुति नाद है, किन्तु प्रत्येक नाद श्रुति नहीं है, केवल २२ नाद ही श्रुति हैं । इसलिये संगीत में अधिकतर श्रुति शब्द प्रयोग होता है, नाद नहीं ।