Responsive Menu
Add more content here...
Learnclassicalmusic.in

उत्पत्ति

ध्रुपद भारतीय शास्त्रीय संगीत की सबसे प्राचीन और गंभीर गायन शैली मानी जाती है। इसका उल्लेख वेदों और प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। ध्रुपद की उत्पत्ति संहिताओं और उपनिषदों में गाए जाने वाले वैदिक मंत्रों से हुई मानी जाती है। यह संगीत शैली मूल रूप से मंदिरों और राजदरबारों में गाई जाती थी।

संस्कृत में इसे “ध्रुवपद” कहा गया है, जिसका अर्थ होता है – स्थायी या अचल पद। इसका मूल उद्देश्य ईश्वर की आराधना और आध्यात्मिक शुद्धता को प्रकट करना था।

विकास

  1. भक्ति आंदोलन का प्रभाव (8वीं-12वीं शताब्दी)
    • ध्रुपद की जड़ें भक्ति संगीत में भी देखी जाती हैं। यह शैली मंदिरों में भगवान की स्तुति के लिए प्रयोग की जाती थी।
    • जयदेव की “गीत गोविंद” और अन्य भक्ति रचनाओं ने इसे विकसित करने में योगदान दिया।
  2. मध्यकाल (13वीं-16वीं शताब्दी)
    • इस काल में ध्रुपद मंदिरों से निकलकर राजदरबारों तक पहुँचा।
    • स्वामी हरिदास और तानसेन जैसे महान संगीतज्ञों ने इसे नई ऊँचाइयाँ दीं।
    • मुगलों के समय ध्रुपद को दरबारी संगीत का दर्जा मिला, जहाँ इसे शास्त्रीय रूप से और विकसित किया गया।
  3. अकबर का दरबार (16वीं शताब्दी)
    • सम्राट अकबर के नौ रत्नों में से एक तानसेन ने ध्रुपद गायन को एक उच्च कोटि का स्वरूप प्रदान किया।
    • इस दौरान ध्रुपद को चार प्रमुख शैलियों (बाने) में बाँटा गया: गौहर बानी, खंडार बानी, डागर बानी और नौहार बानी
  4. आधुनिक काल (18वीं शताब्दी से अब तक)
    • 18वीं शताब्दी के बाद ध्रुपद की लोकप्रियता में कमी आई और ख्याल गायन ने इसे धीरे-धीरे पीछे छोड़ दिया।
    • हालांकि, डागर घराने के गायकों ने इसे पुनर्जीवित करने का कार्य किया।
    • वर्तमान में ध्रुपद का अध्ययन और प्रदर्शन देश-विदेश में किया जा रहा है, और यह भारतीय शास्त्रीय संगीत की पहचान बना हुआ है।

विशेषताएँ

ध्रुपद न केवल भारत की सांस्कृतिक धरोहर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, बल्कि यह आज भी अपने पारंपरिक रूप में जीवित है और संगीत प्रेमियों को आध्यात्मिक शांति प्रदान करता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *